कुछ तो शर्म करो ए दुनिया वालों बस जरा सी कसर बाकी है, अब इस दीए में और तेल नहीं बस जरा सी बाती बाकी है,
नमस्कार दोस्तों, ब्लॉगवाणी में आपका स्वागत है। मैं हूं आपकी दोस्त शालू वर्मा, और आज ब्लॉगवाणी में मैं आपके लिए लेकर आई हूं, आज के दौर में प्रकृति पर एक कविता। आपको अच्छी लगे तो इसे शेयर कीजिएगा और Blog फॉलो कीजिएगा…
↳ कुछ तो शर्म करो ए दुनिया वालों बस जरा सी कसर बाकी है,
अब इस दीए में और तेल नहीं बस जरा सी बाती बाकी है,
↳बुझ ना जाए कहीं यह दीया, पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने से,
नोटों के बंडल खातिर, बावड़ियों के पेंदे सुखाने से,
↳क्यों चला रहे हो हथौड़े पहाड़ों पर, क्यों सूनी मां की छाती है,
क्यों गिरती है यहां खड़ी इमारतें, क्यों पल में सुनामी आ जाती है,
↳कुछ तो शर्म करो ए दुनिया वालों बस जरा सी कसर बाकी है
अब इस दीए में और तेल नहीं बस जरा सी बाती बाकी है,
↳क्यों खामोश हैं वे हवाऐं, जो कभी खुशियों के राग सुनाती थी,
मिलाती थी ताल से ताल बैसाखी पर, रंगों के संग इठलाती थी,
↳क्यों ठहर गई वह गंगा, जो कभी आई फाड़कर मां की छाती थी,
क्यों गोमुख गया है सूख, क्यों चिड़िया रेत में नहाती है,
↳कुछ तो शर्म करो ए दुनिया वालों बस जरा सी कसर बाकी है,
अब इस दीए में और तेल नहीं बस जरा सी बाती बाकी है,
↳टूट चुकी है धरती माता, आदमजात के प्रकारों से,
क्यों रूठ रहे हो तुम परंपरागत त्योहारों से,
↳छलनी हो गई मां की छाती, अब क्या इतिहास दोहराना बाकी है,
अब क्या इतिहास दोहराना बाकी है,
↳कुछ तो शर्म करो ए दुनिया वालों जरा सी बात बाकी है...
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