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यह समय समय की नहीं, समझ- समझ की बात है...😎😀

*गुम हो गए संयुक्त परिवार*
*एक वो दौर था* जब पति, 
*अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर* 
घर आने की खबर अपनी पत्नी को देता था ।  
पत्नी की *छनकती पायल और खनकते कंगन* बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे ।

 बाऊजी की बातों का.. *”हाँ बाऊजी"*  
*"जी बाऊजी"*' के अलावा दूसरा जवाब नही होता था ।

*आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया*

 ये *"समय-समय"* की नही,
*"समझ-समझ"* की बात है 

बीवी से तो दूर, बड़ो के सामने, अपने बच्चों तक से बात नही करते थे 
*आज बड़े बैठे रहते हैं हम सिर्फ बीवी* से बात करते हैं

दादाजी के कंधे तो मानो, पोतों-पोतियों के लिए 
आरक्षित होते थे, *काका* ही 
*भतीजों के दोस्त हुआ करते थे ।*

आज वही दादू - दादी  
*वृद्धाश्रम* की पहचान है, 
 *चाचा - चाची* बस
 *रिश्तेदारों की सूची का नाम है ।*

बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए 
जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे ।
*'ताऊजी'* 
आज *सिर्फ पहचान* रह गए
और,...... 
 *छोटे के बच्चे* 
पता नही *कब जवान* हो गये..?? 

दादी जब बिलोना करती थी,
बेटों को भले ही छाछ दे 
 पर *मक्खन* तो 
*केवल पोतों में ही बाँटती थी।*

 *दादी ने* 
*पोतों की आस छोड़ दी*,
 क्योंकि,...
*पोतों ने अपनी राह* 
*अलग मोड़ दी ।*

राखी पर *बुआ* आती थी,
घर मे नही 
*मोहल्ले* में,
*फूफाजी* को
 *चाय-नाश्ते पर बुलाते थे।*

अब बुआजी,
बस *दादा-दादी* के 
बीमार होने पर आते है,
किसी और को 
उनसे मतलब नही
चुपचाप नयननीर बरसाकर 
वो भी चले जाते है ।

शायद *मेरे शब्दों* का 
कोई *महत्व ना* हो,
पर *कोशिश* करना,
इस *भीड़* में 
*खुद को पहचानने की*,
 
*कि*,.......

*हम "ज़िंदा है"* 
या 
*बस "जी रहे" हैं"*
अंग्रेजी ने अपना स्वांग रचा दिया, 
*"शिक्षा के चक्कर में* 
 *संस्कारों को ही भुला दिया"।*

बालक की प्रथम पाठशाला *परिवार* 
पहला शिक्षक उसकी *माँ* होती थी, 
आज
 *परिवार* ही नही रहे
पहली *शिक्षक* का क्या काम...??

"ये *समय-समय* की नही,
 *समझ-समझ* की बात है. 
🙏🏻🙏🏽🙏🏽🙏🏽🙏🏽

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