हथौड़े से महल गढ़ने वाले हाथ और इंसान का बोझ ढ़ोने वाले कंधे जिंदगी से जंग की 'महाभारत' में खुद से ही भिड़ गए हैं। हजारों मील की दौड़ लगाकर घर की चौखट पर दम तोड़ने की चाह में दौड़े जा रहे हैं। कह रहे हैं हमें कोरोना नहीं, भूख मार डालेगी।
- Vikas Verma, Editor.
नमस्कार। मुझे यकीन है कि इस तरह का बोर्ड आपने अपने जीवन में कभी ना कभी तो किसी सड़क किनारे जरूर पढ़ा होगा। जी हां, जब कहीं सड़क निर्माण का काम हो, पानी की पाइप लाइन बिछानी हो, टेलीफोन या विद्युत केबिल ठीक करने हो... तो अक्सर इस तरह का बोर्ड लगा दिया जाता है। ठीक वैसे ही आज आपको यह भी यकीन करना होगा कि प्रकृति ने भू - लोक के कुछ हिस्से को लॉक डाउन दिया है। कुछ रिकवर करने के लिए, कुछ रिपेयर करने के लिए। जरा एक बार सांस खींचकर तो देखिए कुछ तो फर्क आया होगा इन हवाओं में।
मानव आत्मा तो बेवजह चित्कार रही है। देखिए तो फिजाओं में कितनी शांति है। ना आंखों में जलन, ना कानो में शोर, ना सड़कों पर खून।
हां, मानवता की 'महाभारत' अब भी जारी है। हथौड़े से महल गढ़ने वाले हाथ और इंसान का बोझ ढ़ोने वाले कंधे जिंदगी से जंग की 'महाभारत' में खुद से ही भिड़ गए हैं। हजारों मील की दौड़ लगाकर घर की चौखट पर दम तोड़ने की चाह में दौड़े जा रहे हैं। कह रहे हैं हमें कोरोना नहीं, भूख मार डालेगी। खैर, प्रकृति को तो अपना काम करना है।
अभी तो प्रकृति का मेंटेनेंस वर्क शुरू हुआ है और मानवता चित्कार उठी है। अभी तो जल दोहन, प्रकृति का खनन, नवजात शिशुओं की चित्कार, कोख में मचा हाहाकार और न जाने कितनी मासूमों से बलात्कार के दर्द का प्रकृति प्रायश्चित करने उतरी है। अपने आप को संभाल रही है आज प्रकृति। आसमान में उड़ते काले धुएं और जहर को पी रही आज प्रकृति। हां प्रकृति अपना संतुलन बना रही है, हमें जीना सिखा रही हैं, जीने का ढंग सिखा रही है। ... और कह रही है...
कुछ तो शर्म करो ए नादानों,
बस जरा सी कसर बाकी है,
अब इस दीए में और तेल नहीं बस जरा सी बात ही बाकी है,
बुझ ना जाए कहीं ये दीया,
पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने से,
नोटों के बंडल खातिर,
बावडियों के पेंदे सुखाने से
क्यों गिरती है तेरी खड़ी इमारतें क्यों पल में सुनामी आ जाती है,
कुछ तो शर्म करो है नादानों...
बस जरा सी कस़र बाकी है।।
बस जरा सी कस़र बाकी है।।
- विकास वर्मा
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