अंधेरा कब छंटेगा...
अखबारों व टीवी चैनलों की रिर्पोटों पर गौर करें तो अधिकतर बलात्कारों के मामले में पिड़िता का प्रेमी, भाई, चचेरा भाई, जेठ या पड़ोस में रहने वाले लोग ही होते हैं। कभी राह चलती लड़की या महिला को किसी अन्जान शख्स ने अपनी हवस का शिकार बनाया हो, ऐसा बहुत ही कम मामलों में देखने को मिलता है।
मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौसम की मार से बचने के लिए शरीर को ढकने की जरूरत महसूस की गई. बीतते समय के साथ जानवरों की छाल पहनने से लेकर आज इतने तरह के कपड़े मौजूद हैं. जीवनशैली के आसान होने के साथ - साथ कपड़ों के ढंग भी बदले हैं और अब यह अवसर, माहौल, पसंद और फैशन के हिसाब से पहने जाते हैं. फिर पूरे बदन को ढकने वाले कपड़ों पर जोर क्यों?
भारत में बलात्कार के ज्यादातर मामलों में पाया गया है कि पीड़िता ने सलवार कमीज और साड़ी जैसे भारतीय कपड़े पहने हुए थे. उन पर हमला करने वाले पुरुषों ने अपनी सेक्स की भूख को मिटाने के लिए संतुलन खो दिया. ऑनर किलिंग के कई मामलों में किसी महिला को सबक सिखाने के मकसद से उस पर जबरन यौन हिंसा की गई और फिर जान से मार डाला गया. इन सबके बीच कपड़ों पर तो किसी का ध्यान नहीं गया.
महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों का कारण लोग मोबाइल फोनों के बढ़ते इस्तेमाल, पश्चिमी देशों के बुरे असर और छोटे कपड़ों को ठहराते हैं. साथ ही कहा जाता है कि मनोरंजन के बहुत कम साधन होने के कारण पुरुष यौन अपराधों को अंजाम देने लगते हैं. इसमें कितनी सच्चाई है, मुझे नीचे कमेंट बाॅक्स में जरूर बतायें।
दुनिया के सबसे युवा देश भारत में आज बलात्कार महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे बड़ा अपराध बन चुका है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की 2013 रिपोर्ट बताती है कि साल दर साल दर्ज होने वाले करीब 98 फीसदी मामलों में बलात्कारी पीड़िता का जानने वाला था. अखबारों व टीवी चैनलों की रिर्पोटों पर गौर करें तो अधिकतर बलात्कारों के मामले में पिड़िता का प्रेमी, भाई, चचेरा भाई, जेठ या पड़ोस में रहने वाले लोग ही होते हैं। कभी राह चलती लड़की या महिला को किसी अन्जान शख्स ने अपनी हवस का शिकार बनाया हो, ऐसा बहुत ही कम मामलों में देखने को मिलता है।
करीब 7 साल पहले दिल्ली में ‘निर्भया’ के साथ दरिंदगी ऐसा ही एक अपवाद था, लेकिन हाल ही में हैदराबाद की वेटनरी डाॅक्टर के साथ हुई घटना में अपराधियों द्वारा वेटनरी डाॅक्टर की रैकी किए जाने की बात सामने आई। पुलिस और मीडिया रिर्पोटों के मुताबिक रैकी करने के पश्चात अपराधियों ने पिड़िता का स्कूटर पेंचर किया और फिर मदद के बहाने उसे अंधेरे का फायदा उठाकर सुनसान जगह खींच ले गए और फिर ‘हैवानियत’ को अंजाम दिया।
सवाल उठता है कि यह अंधेरा कब तक हमारी बहु-बेटियों को डराएगा।
आज भी जब लड़किया स्कूल के लिए घर से निकलती हैं तो अश्लील फब्तियों की शिकार होती हैं। यह सच है कि ये फब्तियां उनके पहनावे और चाल को लेकर होती हैं। मैनें स्वयं ने कई सरकारी विद्यालयों में लड़कियों से इस समस्या पर वार्तालाप किया है। लड़कियों ने जो बताया वह ‘सच’ डरावना है और हमारी प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। देश की क्या, देश के एक छोटे से शहर की बात करूंगा। मैं राजस्थान के कोटपूतली तहसील का निवासी हूं, और मैंने यही के सरकारी विद्यालयों को ‘नापा’ है। किसी एक विद्यालय की बात छोड़िए, अधिकतर विद्यालयों में बालिकाओं के लिए ‘सुलभ’ शौचालय की व्यवस्था तक नहीं है। ‘सुलभ’ का अर्थ तो जानते हैं ना आप! मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शौचालय नहीं हैं, मगर ‘सुलभ’ भी नहीं है। ...भला जिन शौचालयों में पानी ही नहीं हो, वह ‘सुलभ’ कैसे हो सकता है। ...और जब पानी नहीं है तो इसका अर्थ है कि बेटियां खुले मे जाती हैं। ...और जब ऐसा होता है तो उन पर ‘लड़कों’ द्वारा इस पर भी ‘टिप्पणियां’ होती हैं। ....जिन्हें सभ्य लोग फब्तियां कहते हैं। क्या यह किसी अंधेरे से कम हैं? आखिर हमारी सरकारों द्वारा बच्चियों को अंधेरे में क्यों रखा जा रहा है। क्या ...सियासी फायदों के लिए साईकिलों का रंग बदलना और स्कूटियां बांटना ही जनसेवकों का काम रह गया है? मुझे आपके विचारों का इंतजार रहेगा।
मेरे कोई बेटी नहीं है, लेकिन मैं हर उस शख्स से पूछना चाहता हूं जिसे यह सौभाग्य प्राप्त है। क्या आपने कभी अपनी बेटी के विद्यालय जाकर उसकी मूलभूत सुविधाओं को जांचा है? क्या आपने कभी जिस वाहन से वह विद्यालय जाती है, कभी उसके पीछे चलकर यह जानने की कौशिश की, कि वह सुकून से विद्यालय पहुंचती है? चलिए छोड़िए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आपने कभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, क्योंकि आपको फुर्सत ही नहीं है। ‘सरकारें’ अपने आप जो कर लेंगी। ...क्योंकि अगर आपने ऐसा किया होता तो जो समस्याऐं मुझे बतायी गई वे समस्याऐं आपकी बेटी आपको भी बता सकती थी। लेकिन हम तब जागते हैं जब बहुत देर हो चुकी होती है।...ध्यान दिजिएगा मैंने इस आलेख में केवल एक ही समस्या का जिक्र किया है जबकि समस्या और भी भयावह हैं।
यहां इस बात का जिक्र किया जाना भी जरूरी है कि कोई भी बलात्कारी पैदा होते ही बलात्कारी नहीं बन जाता। उसके लिए भी ‘हम’ यानी की हमारा ‘समाज’ ही जिम्मेदार है।...आखिर वो कौनसे कारक हैं जो ‘बेटों’ को फांसी के फंदे तक पहुंचा रहे हैं...चर्चा करूगां आपसे अगले आलेख में...लेकिन उससे पहले इस आलेख पर आप अपने ‘बेबाक विचार’ मुझे जरूर भेजिएगा, क्योंकि इनके बगैर ‘हौसला’ व कलम को ‘दिशा’ मिलना कठिन हो सकता है।।
आपसे निवेदन है कि आलेख को अपने फेसबुक पेज व Whatsaap ग्रुप में जरूर शेयर करें, ताकि अधिक से अधिक लोगों के मन की बात मुझ तक पहुंच सके। ...और हां, कोई बेटी अगर ऐसी किसी भी तरह की समस्या से जूझ रही हो तो बेबाक तरीके अपनी बात यहां लिख सकती है। मुझे ई-मेल कर सकती है। E-mail- newschakra@gmail.com
अखबारों व टीवी चैनलों की रिर्पोटों पर गौर करें तो अधिकतर बलात्कारों के मामले में पिड़िता का प्रेमी, भाई, चचेरा भाई, जेठ या पड़ोस में रहने वाले लोग ही होते हैं। कभी राह चलती लड़की या महिला को किसी अन्जान शख्स ने अपनी हवस का शिकार बनाया हो, ऐसा बहुत ही कम मामलों में देखने को मिलता है।
मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौसम की मार से बचने के लिए शरीर को ढकने की जरूरत महसूस की गई. बीतते समय के साथ जानवरों की छाल पहनने से लेकर आज इतने तरह के कपड़े मौजूद हैं. जीवनशैली के आसान होने के साथ - साथ कपड़ों के ढंग भी बदले हैं और अब यह अवसर, माहौल, पसंद और फैशन के हिसाब से पहने जाते हैं. फिर पूरे बदन को ढकने वाले कपड़ों पर जोर क्यों?
भारत में बलात्कार के ज्यादातर मामलों में पाया गया है कि पीड़िता ने सलवार कमीज और साड़ी जैसे भारतीय कपड़े पहने हुए थे. उन पर हमला करने वाले पुरुषों ने अपनी सेक्स की भूख को मिटाने के लिए संतुलन खो दिया. ऑनर किलिंग के कई मामलों में किसी महिला को सबक सिखाने के मकसद से उस पर जबरन यौन हिंसा की गई और फिर जान से मार डाला गया. इन सबके बीच कपड़ों पर तो किसी का ध्यान नहीं गया.
महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों का कारण लोग मोबाइल फोनों के बढ़ते इस्तेमाल, पश्चिमी देशों के बुरे असर और छोटे कपड़ों को ठहराते हैं. साथ ही कहा जाता है कि मनोरंजन के बहुत कम साधन होने के कारण पुरुष यौन अपराधों को अंजाम देने लगते हैं. इसमें कितनी सच्चाई है, मुझे नीचे कमेंट बाॅक्स में जरूर बतायें।
दुनिया के सबसे युवा देश भारत में आज बलात्कार महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे बड़ा अपराध बन चुका है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की 2013 रिपोर्ट बताती है कि साल दर साल दर्ज होने वाले करीब 98 फीसदी मामलों में बलात्कारी पीड़िता का जानने वाला था. अखबारों व टीवी चैनलों की रिर्पोटों पर गौर करें तो अधिकतर बलात्कारों के मामले में पिड़िता का प्रेमी, भाई, चचेरा भाई, जेठ या पड़ोस में रहने वाले लोग ही होते हैं। कभी राह चलती लड़की या महिला को किसी अन्जान शख्स ने अपनी हवस का शिकार बनाया हो, ऐसा बहुत ही कम मामलों में देखने को मिलता है।
करीब 7 साल पहले दिल्ली में ‘निर्भया’ के साथ दरिंदगी ऐसा ही एक अपवाद था, लेकिन हाल ही में हैदराबाद की वेटनरी डाॅक्टर के साथ हुई घटना में अपराधियों द्वारा वेटनरी डाॅक्टर की रैकी किए जाने की बात सामने आई। पुलिस और मीडिया रिर्पोटों के मुताबिक रैकी करने के पश्चात अपराधियों ने पिड़िता का स्कूटर पेंचर किया और फिर मदद के बहाने उसे अंधेरे का फायदा उठाकर सुनसान जगह खींच ले गए और फिर ‘हैवानियत’ को अंजाम दिया।
सवाल उठता है कि यह अंधेरा कब तक हमारी बहु-बेटियों को डराएगा।
आज भी जब लड़किया स्कूल के लिए घर से निकलती हैं तो अश्लील फब्तियों की शिकार होती हैं। यह सच है कि ये फब्तियां उनके पहनावे और चाल को लेकर होती हैं। मैनें स्वयं ने कई सरकारी विद्यालयों में लड़कियों से इस समस्या पर वार्तालाप किया है। लड़कियों ने जो बताया वह ‘सच’ डरावना है और हमारी प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। देश की क्या, देश के एक छोटे से शहर की बात करूंगा। मैं राजस्थान के कोटपूतली तहसील का निवासी हूं, और मैंने यही के सरकारी विद्यालयों को ‘नापा’ है। किसी एक विद्यालय की बात छोड़िए, अधिकतर विद्यालयों में बालिकाओं के लिए ‘सुलभ’ शौचालय की व्यवस्था तक नहीं है। ‘सुलभ’ का अर्थ तो जानते हैं ना आप! मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शौचालय नहीं हैं, मगर ‘सुलभ’ भी नहीं है। ...भला जिन शौचालयों में पानी ही नहीं हो, वह ‘सुलभ’ कैसे हो सकता है। ...और जब पानी नहीं है तो इसका अर्थ है कि बेटियां खुले मे जाती हैं। ...और जब ऐसा होता है तो उन पर ‘लड़कों’ द्वारा इस पर भी ‘टिप्पणियां’ होती हैं। ....जिन्हें सभ्य लोग फब्तियां कहते हैं। क्या यह किसी अंधेरे से कम हैं? आखिर हमारी सरकारों द्वारा बच्चियों को अंधेरे में क्यों रखा जा रहा है। क्या ...सियासी फायदों के लिए साईकिलों का रंग बदलना और स्कूटियां बांटना ही जनसेवकों का काम रह गया है? मुझे आपके विचारों का इंतजार रहेगा।
मेरे कोई बेटी नहीं है, लेकिन मैं हर उस शख्स से पूछना चाहता हूं जिसे यह सौभाग्य प्राप्त है। क्या आपने कभी अपनी बेटी के विद्यालय जाकर उसकी मूलभूत सुविधाओं को जांचा है? क्या आपने कभी जिस वाहन से वह विद्यालय जाती है, कभी उसके पीछे चलकर यह जानने की कौशिश की, कि वह सुकून से विद्यालय पहुंचती है? चलिए छोड़िए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आपने कभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, क्योंकि आपको फुर्सत ही नहीं है। ‘सरकारें’ अपने आप जो कर लेंगी। ...क्योंकि अगर आपने ऐसा किया होता तो जो समस्याऐं मुझे बतायी गई वे समस्याऐं आपकी बेटी आपको भी बता सकती थी। लेकिन हम तब जागते हैं जब बहुत देर हो चुकी होती है।...ध्यान दिजिएगा मैंने इस आलेख में केवल एक ही समस्या का जिक्र किया है जबकि समस्या और भी भयावह हैं।
यहां इस बात का जिक्र किया जाना भी जरूरी है कि कोई भी बलात्कारी पैदा होते ही बलात्कारी नहीं बन जाता। उसके लिए भी ‘हम’ यानी की हमारा ‘समाज’ ही जिम्मेदार है।...आखिर वो कौनसे कारक हैं जो ‘बेटों’ को फांसी के फंदे तक पहुंचा रहे हैं...चर्चा करूगां आपसे अगले आलेख में...लेकिन उससे पहले इस आलेख पर आप अपने ‘बेबाक विचार’ मुझे जरूर भेजिएगा, क्योंकि इनके बगैर ‘हौसला’ व कलम को ‘दिशा’ मिलना कठिन हो सकता है।।
आपसे निवेदन है कि आलेख को अपने फेसबुक पेज व Whatsaap ग्रुप में जरूर शेयर करें, ताकि अधिक से अधिक लोगों के मन की बात मुझ तक पहुंच सके। ...और हां, कोई बेटी अगर ऐसी किसी भी तरह की समस्या से जूझ रही हो तो बेबाक तरीके अपनी बात यहां लिख सकती है। मुझे ई-मेल कर सकती है। E-mail- newschakra@gmail.com
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