सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे विनोबा भावे...

नमस्कार दोस्तों, महापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोक हितकारी चिंतन युगों युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता है। ब्लॉगवाणी में आज हम एक ऐसे ही प्रकाश स्तंभ की चर्चा करेंगे, जो ना केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी रहे बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे और पूरा देश जिन्हें राष्ट्रीय अध्यापक का सम्मान देता है। जी हां, आज हम बात करेंगे आचार्य विनोबा भावे की। आचार्य विनोबा भावे जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी कहा गया। उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी, इसी कारण संत स्वभाव के बावजूद उनमें राजनीतिक सक्रियता भी थी। 

उन्होंने सामाजिक अन्याय और धार्मिक विषमता का मुकाबला करने के लिए देश की जनता को स्वयंसेवी होने का आह्वान किया। उन्होंने देश की जनता के हितों के लिए जो आंदोलन चलाएं वह अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है। 1951 की बात है, आजाद हिंदुस्तान को जन्म लिए बस 4 ही साल बीते थे। देश में भयंकर गरीबी थी। लोगों के पास खाने के लिए रोटी नहीं थी। रोटी बनाने के लिए अन्न नहीं था। अन्न उपजाने के लिए जमीन नहीं थी।...और देश कि इस पीड़ा को भारी भीड़ के सामने आचार्य विनोबा भावे रख रहे थे। इसके लिए पूरे देश में 45000 किलोमीटर की यात्रा विनोबा भावे ने नंगे पैर की। आपको आश्चर्य होगा कि एक छोटे से बच्चे से भी अगर हाथ का खिलौना मांगो, तो वह हाथ खींच लेता है, लेकिन इस देश के लोगों ने, जमींदारों ने, स्वागत किया इस संत का, आचार्य विनोबा भावे का।...और अपनी जमीन दान की, गांव के गांव दान किए और फिर नींव पड़ी भूदान आंदोलन की। जीत हुई विनोबा के विश्वास की।

पाठकों, विनोबा भावे का जन्म महाराष्ट्र के एक चिंतपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब छोटे थे तो भागवत गीता की आवाज में और बड़े हुए तो महात्मा गांधी की आवाज में उनके जीवन को और उनके विचारों को प्रेरणा मिली। 1916 में जब एक बार अपना इंटरमीडिएट का एग्जाम देने मुंबई जा रहे थे तो बापू का भाषण पढ़ा और इतना प्रेरित हुए कि उन्होंने अपने स्कूल और कॉलेज के सारे सर्टिफिकेट को आग के हवाले कर दिया और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। कई बार जेल गए। 1920 में, 1930 में, और करीब 5 साल के लिए 1940 में। और जेल प्रवासों का भरपूर उपयोग किया विनोबा भावे ने साहित्य सृजन के लिए। संत ज्ञानेश्वर एवं संत तुकाराम उनके आदर्श थे। आश्रम में आने के बाद भी वह अध्ययन व चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे। 

दोस्तों, अंत समय में जब शरीर कमजोर पड़ने लगा तो आचार्य विनोबा भावे ने भोजन और दवा का त्याग कर दिया और 87 साल की उम्र में आज ही के दिन 15 नवंबर 1982 को उन्होंने स्वेच्छा से समाधि ली। जीवन के दौरान भी और जीवन के बाद भी उनको तमाम पुरस्कार और सम्मान मिले। 1958 में कम्युनिटी लीडरशिप के लिए मैग्सेसे अवार्ड पाने वाले पहले व्यक्ति थे विनोबा भावे। महात्मा गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के पहले सत्याग्रही थे विनोबा भावे। भारत रत्न थे विनोबा भावे। 

दोस्तों, आज के अंक में बस इतना ही, अगले अंक में नए विषय के साथ आप से फिर मुलाकात होगी, शालू वर्मा को दीजिए इजाजत। नमस्कार। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कोई फ्री में दे तो क्या हम जहर भी खाने को तैयार हैं...

पढ़िए आज आपके स्वास्थ्य से जुड़ीे बड़ी कवरेज न्यूज चक्र पर...

'कॉकरोच' से डरती 'जिंदगी'

एक रेस्टोरेंट में अचानक ही एक कॉकरोच उड़ते हुए आया और एक महिला की कलाई पर बैठ गया। महिला भयभीत हो गयी और उछल-उछल कर चिल्लाने लगी…कॉकरोच…कॉकरोच… उसे इस तरह घबराया देख उसके साथ आये बाकी लोग भी पैनिक हो गए …इस आपाधापी में महिला ने एक बार तेजी से हाथ झटका और कॉकरोच उसकी कलाई से छटक कर उसके साथ ही आई एक दूसरी महिला के ऊपर जा गिरा। अब इस महिला के चिल्लाने की बारी थी…वो भी पहली महिला की तरह ही घबरा गयी और जोर-जोर से चिल्लाने लगी! दूर खड़ा वेटर ये सब देख रहा था, वह महिला की मदद के लिए उसके करीब पहुंचा कि तभी कॉकरोच उड़ कर उसी के कंधे पर जा बैठा। वेटर चुपचाप खड़ा रहा।  मानो उसे इससे कोई फर्क ही ना पड़ा, वह ध्यान से कॉकरोच की गतिविधियाँ देखने लगा और एक सही मौका देख कर उसने पास रखा नैपकिन पेपर उठाया और कॉकरोच को पकड़ कर बाहर फेंक दिया। मैं वहां बैठ कर कॉफ़ी पी रहा था और ये सब देखकर मेरे मन में एक सवाल आया….क्या उन महिलाओं के साथ जो कुछ भी हुआ उसके लिए वो कॉकरोच जिम्मेदार था? यदि हाँ, तो भला वो वेटर क्यों नहीं घबराया? बल्कि उसने तो बिना परेशान हुए पूरी सिचुएशन को पेर्फेक्ट्ली हैंडल किया। दरअसल, वो क...

यह समय समय की नहीं, समझ- समझ की बात है...😎😀

*गुम हो गए संयुक्त परिवार* *एक वो दौर था* जब पति,  *अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर*  घर आने की खबर अपनी पत्नी को देता था ।   पत्नी की *छनकती पायल और खनकते कंगन* बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे ।  बाऊजी की बातों का.. *”हाँ बाऊजी"*   *"जी बाऊजी"*' के अलावा दूसरा जवाब नही होता था । *आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया*  ये *"समय-समय"* की नही, *"समझ-समझ"* की बात है  बीवी से तो दूर, बड़ो के सामने, अपने बच्चों तक से बात नही करते थे  *आज बड़े बैठे रहते हैं हम सिर्फ बीवी* से बात करते हैं दादाजी के कंधे तो मानो, पोतों-पोतियों के लिए  आरक्षित होते थे, *काका* ही  *भतीजों के दोस्त हुआ करते थे ।* आज वही दादू - दादी   *वृद्धाश्रम* की पहचान है,   *चाचा - चाची* बस  *रिश्तेदारों की सूची का नाम है ।* बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए  जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे । *'ताऊजी'*  आज *सिर्फ पहचान* रह गए और,......   *छोटे के ...

कृपया फोलो/ Follow करें।

कुल पेज दृश्य