सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पर्यावरण से बदलता जीवन...

नमस्कार दोस्तों, ब्लॉगवाणी पर आपका स्वागत है। दोस्तों, आज हम बात करेंगे वर्षा ऋतु की, यानी कि बरसात की, बरसात से बदलते पर्यावरण की और पर्यावरण से बदलते जीवन की।

जी हां दोस्तों, जुलाई का महीना है, आकाश में नीली, काली, सफेद घटाएं और उनके बीच कड़कती बिजली और कभी मध्यम तो कभी तेज बरसती बरसात की फुहारें मन को आनंदित कर देती हैं। दोस्तों, बरसात के मौसम में हमारा तन मन तो आनंदित होता ही है, साथ ही पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, देखा जाए तो सभी के लिए यह मौसम खुशियां लेकर आता है।अगर मैं यह कहूं कि " प्यासी धरा भी बरसात का पानी पीकर हरियाली पेड़ पौधों और फूलों से महकने लगती है" तो गलत नहीं होगा। सूखे तालाब और नदियों में पानी की आवक से संगीत की तरंगे उठने लगती हैं। 

---तो दोस्तों क्यों ना हम ऐसे सुंदर मौसम में एक कदम पर्यावरण संरक्षण के लिए बढ़ालें, क्योंकि पर्यावरण संरक्षण हम सब की जिम्मेदारी भी है और ज़रूरत भी और फिर बरसात का मौसम तो वृक्षारोपण के लिए बहुत ही उपयुक्त होता है, तो क्यों ना हम में से प्रत्येक अपने कल की खुशहाली के लिए एक पौधा जरुर लगाएं। पौधारोपण से धरती पर हरियाली तो बढ़ती ही है, साथ ही हवा भी साफ स्वच्छ और प्रदूषण रहित हो जाती है। कहा जाता है कि एक पौधा लगा देने मात्र से ही जीवन में खुशहाली सुख समृद्धि और आयु में बढ़ोतरी हो जाती है।

दोस्तों, शहरी वातावरण में वाहनों के बाहरी आवागमन से प्रदूषण की अधिकता रहती है...साथ ही कई कॉलोनियों में मकान के बाहर जगह की कमी के चलते पेड़ नहीं लगाए जा सकते हैं, तो ऐसे में हम हमारे नजदीकी विद्यालय, कॉलेज परिसर, पंचायत समिति, नगर पालिका पार्क इत्यादि को इसके लिए चुन सकते हैं।

 ...तो दोस्तों, देश की दो राजधानियों के बीच बसा कोटपूतली शहर आपके और हमारे छोटे़-छोटे प्रयासों से सुंदर बन सकता है और जब शहर का पर्यावरण यानी कि वातावरण शुद्ध होगा, तो आप और हम भी स्वस्थ रहेंगे और स्वस्थ मन व स्वस्थ तन ही एक मजबूत व विकासशील देश का निर्माण करता है़।

...तो बरसात की रिमझिम बूंदों का आनंद लीजिए और अपने परिवार, समाज व देश हित में अपने हाथों से एक पौधा जरूर लगा दीजिए।

कहो गर्व से कि अब मैंने यह ठाना है,
प्रदूषित पर्यावरण को फिर से पवित्र बनाना है, 
महक उठे यह धरती ऐसा इत्र बनाना है,
जीवन का आधार वृक्ष है, 
हर वर्ष एक वृक्ष लगाना है, 
रोगों का उपचार वृक्ष है, 
इन्हें ही सच्चा मित्र बनाना है, 
हां अब इन्हें ही सच्चा मित्र बनाना है। 
...तो दोस्तों कल आपसे फिर मुलाकात होगी। अगर आपको हमारा यह आलेख पसंद आया हो तो इसे लाईक करें, अपने विचार कमेंट बॉक्स में लिखें, और इसे अधिक से अधिक शेयर करें। धन्यवाद।


आपकी 
शालू वर्मा।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

'कॉकरोच' से डरती 'जिंदगी'

एक रेस्टोरेंट में अचानक ही एक कॉकरोच उड़ते हुए आया और एक महिला की कलाई पर बैठ गया। महिला भयभीत हो गयी और उछल-उछल कर चिल्लाने लगी…कॉकरोच…कॉकरोच… उसे इस तरह घबराया देख उसके साथ आये बाकी लोग भी पैनिक हो गए …इस आपाधापी में महिला ने एक बार तेजी से हाथ झटका और कॉकरोच उसकी कलाई से छटक कर उसके साथ ही आई एक दूसरी महिला के ऊपर जा गिरा। अब इस महिला के चिल्लाने की बारी थी…वो भी पहली महिला की तरह ही घबरा गयी और जोर-जोर से चिल्लाने लगी! दूर खड़ा वेटर ये सब देख रहा था, वह महिला की मदद के लिए उसके करीब पहुंचा कि तभी कॉकरोच उड़ कर उसी के कंधे पर जा बैठा। वेटर चुपचाप खड़ा रहा।  मानो उसे इससे कोई फर्क ही ना पड़ा, वह ध्यान से कॉकरोच की गतिविधियाँ देखने लगा और एक सही मौका देख कर उसने पास रखा नैपकिन पेपर उठाया और कॉकरोच को पकड़ कर बाहर फेंक दिया। मैं वहां बैठ कर कॉफ़ी पी रहा था और ये सब देखकर मेरे मन में एक सवाल आया….क्या उन महिलाओं के साथ जो कुछ भी हुआ उसके लिए वो कॉकरोच जिम्मेदार था? यदि हाँ, तो भला वो वेटर क्यों नहीं घबराया? बल्कि उसने तो बिना परेशान हुए पूरी सिचुएशन को पेर्फेक्ट्ली हैंडल किया। दरअसल, वो क...

कोई फ्री में दे तो क्या हम जहर भी खाने को तैयार हैं...

पढ़िए आज आपके स्वास्थ्य से जुड़ीे बड़ी कवरेज न्यूज चक्र पर...

यह समय समय की नहीं, समझ- समझ की बात है...😎😀

*गुम हो गए संयुक्त परिवार* *एक वो दौर था* जब पति,  *अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर*  घर आने की खबर अपनी पत्नी को देता था ।   पत्नी की *छनकती पायल और खनकते कंगन* बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे ।  बाऊजी की बातों का.. *”हाँ बाऊजी"*   *"जी बाऊजी"*' के अलावा दूसरा जवाब नही होता था । *आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया*  ये *"समय-समय"* की नही, *"समझ-समझ"* की बात है  बीवी से तो दूर, बड़ो के सामने, अपने बच्चों तक से बात नही करते थे  *आज बड़े बैठे रहते हैं हम सिर्फ बीवी* से बात करते हैं दादाजी के कंधे तो मानो, पोतों-पोतियों के लिए  आरक्षित होते थे, *काका* ही  *भतीजों के दोस्त हुआ करते थे ।* आज वही दादू - दादी   *वृद्धाश्रम* की पहचान है,   *चाचा - चाची* बस  *रिश्तेदारों की सूची का नाम है ।* बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए  जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे । *'ताऊजी'*  आज *सिर्फ पहचान* रह गए और,......   *छोटे के ...

कृपया फोलो/ Follow करें।

कुल पेज दृश्य